बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले एक ताजा सर्वे ने सियासी हलकों में हलचल मचा दी है। नकडोर-टीसीएम के संयुक्त सर्वे के अनुसार, दलित वोटरों के बीच राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) नेता तेजस्वी यादव सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे हैं, जबकि महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस और वाम दल) दलित समुदाय की पहली पसंद बना हुआ है। यह सर्वे बिहार की 243 विधानसभा सीटों पर होने वाले आगामी चुनावों से पहले दलित मतदाताओं के रुझान को दर्शाता है, जो राज्य की सियासत में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
दलित वोटरों का रुझान
सर्वे में शामिल 36.2% दलित मतदाताओं ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी पहली पसंद बताया, जबकि मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को केवल 18.4% समर्थन मिला। यह आंकड़ा नीतीश कुमार की लोकप्रियता में कमी और तेजस्वी के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है। दलितों के बीच महागठबंधन को 35.8% समर्थन प्राप्त हुआ, जबकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को 48.9% वोटरों ने पसंद किया। हालांकि, मुख्यमंत्री पद के लिए तेजस्वी की लोकप्रियता एनडीए के किसी भी नेता से कहीं आगे है।
सर्वे में यह भी सामने आया कि दलित समुदाय में चिराग पासवान ने नीतीश कुमार को लोकप्रियता के मामले में पीछे छोड़ दिया है। चिराग को 5.8% समर्थन मिला, जबकि नीतीश की लोकप्रियता में कमी का कारण एनडीए द्वारा मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरे की घोषणा न करना बताया जा रहा है। इसके अलावा, जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर भी 2.3% समर्थन के साथ उभरते हुए नेता के रूप में दिखाई दे रहे हैं, हालांकि उनकी लोकप्रियता अभी भी तेजस्वी से काफी कम है।
महागठबंधन की रणनीति
महागठबंधन ने दलित वोटरों को लुभाने के लिए अपनी रणनीति को और मजबूत किया है। आरजेडी ने दलित समुदाय के बीच अपनी पैठ बढ़ाने के लिए सामाजिक न्याय और रोजगार जैसे मुद्दों पर जोर दिया है। तेजस्वी यादव की जन विश्वास यात्रा, जो 20 फरवरी 2024 को मुजफ्फरपुर से शुरू हुई थी, ने युवाओं और हाशिए पर पड़े समुदायों में उनकी अपील को और बढ़ाया। सर्वे में बेरोजगारी (51.2%) और महंगाई (45.7%) को दलित वोटरों के लिए सबसे बड़े मुद्दों के रूप में उजागर किया गया, जो महागठबंधन की रणनीति के अनुरूप है। कांग्रेस, जो महागठबंधन का हिस्सा है, भी दलित वोटरों को फिर से अपनी ओर खींचने की कोशिश में है। एक समय बिहार में दलितों के बीच कांग्रेस का मजबूत आधार था, लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह कमजोर हुआ है। अब पार्टी राहुल गांधी के नेतृत्व में सामाजिक न्याय और जाति आधारित गणना जैसे मुद्दों को उठाकर अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश कर रही है।
चुनौतियां और राजनीतिक समीकरण
दलित मतदाता, जो बिहार की आबादी का 19.65% हिस्सा हैं, 38 आरक्षित सीटों के अलावा कई सामान्य सीटों पर भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन ने दलित और महादलित वोटों में अच्छी-खासी हिस्सेदारी हासिल की थी, और इस बार भी वह इस समुदाय को अपने पक्ष में करने की कोशिश में है। हालांकि, एनडीए भी दलित वोटरों को लुभाने के लिए सक्रिय है। बीजेपी ने हाल ही में महागठबंधन पर बी.आर. आंबेडकर का अपमान करने का आरोप लगाया और खुद को दलित हितों का सच्चा रक्षक बताया। जेडी(यू) ने भी “भीम संसद” जैसे कार्यक्रमों के जरिए दलित समुदाय तक पहुंचने की कोशिश की है।
सर्वे में यह भी सामने आया कि चुनाव आयोग की विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) प्रक्रिया ने दलित और प्रवासी मतदाताओं में वोटिंग अधिकार छिनने का डर पैदा किया है। इस प्रक्रिया के तहत 2003 के बाद मतदाता सूची में शामिल लोगों को अतिरिक्त दस्तावेज जमा करने की जरूरत है, जिसे लेकर विपक्ष ने एनडीए पर मतदाताओं को दबाने का आरोप लगाया है।
आगे की राह
बिहार में अक्टूबर-नवंबर 2025 में होने वाले विधानसभा चुनावों में दलित वोटरों की भूमिका अहम होगी। तेजस्वी यादव की बढ़ती लोकप्रियता और महागठबंधन की रणनीति से साफ है कि विपक्ष दलित और पिछड़े समुदायों को एकजुट करने की कोशिश में है। दूसरी ओर, एनडीए को अपनी रणनीति को और मजबूत करना होगा, खासकर तब जब नीतीश कुमार की लोकप्रियता में कमी आ रही है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि तेजस्वी यादव का युवा नेतृत्व और सामाजिक न्याय का एजेंडा दलित वोटरों को आकर्षित कर रहा है, लेकिन एनडीए की मजबूत संगठनात्मक मशीनरी और नीतीश कुमार का अनुभव अभी भी उनके लिए चुनौती बना हुआ है। आगामी चुनावों में यह देखना दिलचस्प होगा कि दलित वोटरों का रुझान किस दिशा में जाता है और क्या तेजस्वी यादव इस लहर को सत्ता तक ले जा पाते हैं।








