इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ संसद के मॉनसून सत्र के पहले दिन एक अभूतपूर्व कदम उठाया गया है। सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के 208 सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए नोटिस दिया है। यह कार्रवाई जस्टिस वर्मा के दिल्ली हाई कोर्ट में कार्यरत रहते हुए उनके आधिकारिक आवास पर 14 मार्च 2025 को लगी आग के बाद जले हुए नोटों और भारी मात्रा में नकदी मिलने की घटना के बाद शुरू हुई। इस घटना ने न्यायपालिका और राजनैतिक गलियारों में तीव्र हलचल मचा दी है।जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ यह महाभियोग प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों—लोकसभा और राज्यसभा—में पेश किया गया है।
लोकसभा में 145 सांसदों, जिनमें भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी), जनता दल (यूनाइटेड), और अन्य दलों के सांसद शामिल हैं, ने लोकसभा अध्यक्ष को एक ज्ञापन सौंपा है। इस ज्ञापन पर अनुराग ठाकुर, रविशंकर प्रसाद, राहुल गांधी, राजीव प्रताप रूडी, सुप्रिया सुले, और केसी वेणुगोपाल जैसे प्रमुख नेताओं के हस्ताक्षर हैं। इसके समानांतर, राज्यसभा में 63 विपक्षी सांसदों ने उपराष्ट्रपति और राज्यसभा सभापति को एक नोटिस सौंपा है। यह कदम भारत के इतिहास में किसी हाई कोर्ट जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया को पहली बार इतने बड़े पैमाने पर शुरू करने का संकेत देता है।इस मामले की शुरुआत तब हुई, जब जस्टिस वर्मा के दिल्ली स्थित आधिकारिक आवास में आग लगने की घटना के बाद दमकलकर्मियों को वहाँ से जली हुई 500 रुपये की नोटों की गड्डियाँ और लगभग 15 करोड़ रुपये की नकदी मिली।
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने 22 मार्च 2025 को तीन सदस्यीय समिति गठित की, जिसमें जस्टिस शील नागू, जस्टिस जीएस संधावालिया, और जस्टिस अनु शिवरामन शामिल थे। इस समिति ने अपनी जाँच में जस्टिस वर्मा को कदाचार का दोषी पाया और उनकी नकदी के स्रोत को स्पष्ट करने में असमर्थता को गंभीर माना। समिति ने 4 मई को अपनी रिपोर्ट में महाभियोग की सिफारिश की थी।जस्टिस वर्मा को इस घटना के बाद दिल्ली हाई कोर्ट से इलाहाबाद हाई कोर्ट स्थानांतरित कर दिया गया और उन्हें कोई न्यायिक कार्य सौंपा नहीं गया। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इस्तीफा देने की सलाह दी थी, लेकिन वर्मा ने इन आरोपों को “षड्यंत्र” बताते हुए इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। उन्होंने 18 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की, जिसमें समिति की रिपोर्ट और महाभियोग की सिफारिश को रद्द करने की माँग की। वर्मा का तर्क है कि उनके आवास के बाहरी हिस्से में मिली नकदी का उनसे कोई सीधा संबंध नहीं है, और जाँच समिति यह साबित नहीं कर पाई कि यह नकदी कहाँ से आई या इसे किसने रखा।
केंद्र सरकार ने इस मामले में तेजी दिखाई है। संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने सभी प्रमुख दलों के साथ विचार-विमर्श की पुष्टि की और कहा कि इस प्रस्ताव के लिए व्यापक सहमति बन चुकी है। उन्होंने जोर देकर कहा कि यह कदम न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए उठाया गया है, न कि राजनैतिक उद्देश्यों के लिए। कांग्रेस सांसद के. सुरेश ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा कि उनकी पार्टी ने 40 हस्ताक्षर दिए हैं और अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर इसकी संख्या पूरी की गई है।हालांकि, कुछ राजनैतिक हलकों में इस महाभियोग प्रस्ताव को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं।
पूर्व कानून मंत्री और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने चेतावनी दी है कि अगर सरकार सुप्रीम कोर्ट की इन-हाउस समिति की रिपोर्ट के आधार पर बिना औपचारिक जाँच के जस्टिस वर्मा को हटाने की कोशिश करती है, तो यह असंवैधानिक होगा। सिब्बल ने इस प्रक्रिया को न्यायिक स्वतंत्रता के लिए खतरा बताया और कहा कि यह न्यायपालिका पर नियंत्रण का एक अप्रत्यक्ष तरीका हो सकता है।भारत के संविधान के अनुच्छेद 124, 217, और 218 के तहत, किसी जज को “सिद्ध कदाचार या अक्षमता” के आधार पर ही हटाया जा सकता है। जजेज (इन्क्वायरी) एक्ट,1968 के अनुसार, महाभियोग प्रस्ताव को कम से कम 100 लोकसभा या 50 राज्यसभा सांसदों के हस्ताक्षर की आवश्यकता होती है। इसके बाद, यदि प्रस्ताव स्वीकार किया जाता है, तो एक तीन सदस्यीय समिति गठित की जाती है, जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट जज, एक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, और एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता शामिल होते हैं।
यह समिति जाँच के बाद अपनी रिपोर्ट सौंपती है, जिसके आधार पर संसद में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित किया जाता है।भारत में अब तक किसी भी जज को महाभियोग के माध्यम से हटाया नहीं गया है। 1993 में जस्टिस वी. रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा में बहुमत न मिलने के कारण विफल हो गया था। 2011 में, कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा में प्रस्ताव पारित हुआ था, लेकिन उन्होंने लोकसभा में मतदान से पहले इस्तीफा दे दिया था। जस्टिस वर्मा का मामला इस मायने में ऐतिहासिक हो सकता है, क्योंकि यह पहली बार होगा जब किसी हाई कोर्ट जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया इतने बड़े पैमाने पर शुरू हुई है।
अब सभी की निगाहें लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति पर टिकी हैं, जो इस प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार करने का फैसला लेंगे। यदि यह प्रस्ताव आगे बढ़ता है, तो संसद के शीतकालीन सत्र में इस पर कार्रवाई हो सकती है। यह मामला न केवल न्यायपालिका की जवाबदेही पर सवाल उठाता है, बल्कि भारत के संवैधानिक ढांचे और लोकतांत्रिक मूल्यों की भी परीक्षा लेता है।