लखनऊ, 13 सितंबर 2025। Familyism in UP Politics: उत्तर प्रदेश की राजनीति में वंशवाद का प्रभाव लंबे समय से चर्चा का विषय रहा है। हाल ही में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट ने इस मुद्दे को फिर से उजागर किया है। रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश के हर पांचवें विधायक का संबंध किसी न किसी राजनीतिक परिवार से है। यह स्थिति केवल एक पार्टी तक सीमित नहीं है, बल्कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), और कांग्रेस जैसी प्रमुख पार्टियों में भी वंशवाद का दबदबा देखने को मिलता है। यह खबर न केवल राजनीतिक पारदर्शिता पर सवाल उठाती है, बल्कि लोकतंत्र में समान अवसरों की कमी को भी रेखांकित करती है।
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एडीआर की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश विधानसभा में मौजूदा विधायकों में से करीब 20% ऐसे हैं, जिनके परिवार का कोई न कोई सदस्य पहले से राजनीति में सक्रिय रहा है। इनमें सांसद, विधायक, या अन्य बड़े राजनीतिक पदों पर रहे लोग शामिल हैं। यह आंकड़ा दर्शाता है कि राजनीति में नए चेहरों को मौका देने के बजाय, पार्टियां अपने परिवारों या करीबी रिश्तेदारों को ही टिकट देना पसंद करती हैं। बीजेपी, जो अक्सर वंशवाद के खिलाफ बयानबाजी करती है, उसमें भी कई विधायक ऐसे हैं जिनके परिवार के लोग पहले से राजनीति में स्थापित हैं। सपा, जिसे वंशवाद का गढ़ माना जाता है, में यह प्रवृत्ति और भी स्पष्ट है। मुलायम सिंह यादव के परिवार से कई सदस्य आज भी सक्रिय राजनीति में हैं।
वंशवाद का प्रभाव केवल सपा या बीजेपी तक सीमित नहीं है। बसपा, जो सामाजिक न्याय की बात करती है, और कांग्रेस, जो युवा नेतृत्व की वकालत करती है, भी इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं हैं। एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि इन पार्टियों में भी कई विधायक ऐसे हैं, जिनके परिवार के सदस्य पहले से राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभा चुके हैं। उदाहरण के लिए, सपा के अखिलेश यादव और उनके परिवार के कई सदस्यों का राजनीति में दबदबा जगजाहिर है। वहीं, बीजेपी में भी कई विधायकों के पिता, भाई या अन्य रिश्तेदार पहले से राजनीति में सक्रिय रहे हैं। यह स्थिति मतदाताओं के बीच एक सवाल खड़ा करती है कि क्या योग्यता के बजाय परिवारवाद को प्राथमिकता दी जा रही है?
वंशवाद का यह बढ़ता प्रभाव लोकतंत्र के लिए एक चुनौती बन रहा है। जब टिकट वितरण में परिवारवाद को प्राथमिकता दी जाती है, तो नए और योग्य नेताओं को अवसर मिलना मुश्किल हो जाता है। इससे राजनीति में एकरूपता आती है और नए विचारों का अभाव होता है। जनता के बीच भी इस मुद्दे पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं हैं। कुछ लोग मानते हैं कि राजनीतिक परिवारों से आने वाले नेता अनुभव और नेटवर्क के कारण बेहतर काम कर सकते हैं, जबकि अन्य का मानना है कि यह लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है। सोशल मीडिया पर भी इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है, जहां लोग वंशवाद को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में वंशवाद का गहरा प्रभाव चिंता का विषय है। एडीआर की रिपोर्ट ने इस मुद्दे को एक बार फिर से सामने लाकर राजनीतिक दलों और मतदाताओं को सोचने पर मजबूर किया है। यदि लोकतंत्र को मजबूत करना है, तो पार्टियों को परिवारवाद से ऊपर उठकर योग्य और नए चेहरों को मौका देना होगा। मतदाताओं को भी चाहिए कि वे वोट देते समय उम्मीदवारों की योग्यता पर ध्यान दें, न कि उनके परिवार के नाम पर। यह बदलाव ही उत्तर प्रदेश की राजनीति को अधिक समावेशी और गतिशील बना सकता है।
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