कांग्रेस के दिग्गज नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने हाल ही में निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने की मांग उठाकर भारतीय राजनीति में एक नई बहस छेड़ दी है। उनकी यह मांग जातिगत जनगणना और 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा हटाने की वकालत के साथ जुड़ी है, जिसने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और अन्य विपक्षी दलों को भी जवाब देने के लिए मजबूर कर दिया है। इस मांग के पीछे राहुल गांधी का मकसद सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना और समाज के कमजोर वर्गों को मुख्यधारा में लाना बताया जा रहा है, लेकिन क्या यह मांग हकीकत में बदल पाएगी, या यह महज एक सियासी दांव है?
जातिगत जनगणना और आरक्षण की नई मांग
राहुल गांधी ने हाल ही में मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, “कांग्रेस पार्टी और इंडिया गठबंधन जातिगत जनगणना करवाएंगे ताकि समाज के हर वर्ग को उसकी हिस्सेदारी मिल सके। जातिगत जनगणना हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है, और हम 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को भी हटाएंगे।” उनकी यह टिप्पणी निजी क्षेत्र में अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण की मांग के साथ आई, जिसने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में हलचल मचा दी है।
निजी क्षेत्र में आरक्षण का इतिहास और वर्तमान संदर्भ
निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग कोई नई बात नहीं है। यह मांग पहली बार 2004 में सामने आई थी, जब सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियों की कमी और निजी क्षेत्र के बढ़ते प्रभाव के कारण इसे उठाया गया था। हाल ही में, जुलाई 2024 में आजाद समाज पार्टी (कांशी राम) के अध्यक्ष और नगीना, उत्तर प्रदेश से सांसद चंद्रशेखर आजाद ने लोकसभा में एक निजी विधेयक पेश किया, जिसमें निजी क्षेत्र में एससी, एसटी, और ओबीसी के लिए आरक्षण की मांग की गई थी। इस विधेयक में निजी क्षेत्र की कंपनियों को आरक्षण लागू करने के लिए प्रोत्साहन देने और प्रभावी नियम बनाने की बात कही गई थी। राहुल गांधी की यह मांग उस समय आई है, जब केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना को मंजूरी दी है। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने घोषणा की थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में सभी जातियों की गिनती के लिए सहमति दी गई है। राहुल गांधी ने इस फैसले का स्वागत करते हुए इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम बताया, लेकिन साथ ही उन्होंने निजी क्षेत्र में आरक्षण और 50 प्रतिशत की सीमा हटाने की मांग को और जोरदार तरीके से उठाया।
सियासी समीकरण और चुनौतियां
राहुल गांधी की इस मांग ने न केवल सत्तारूढ़ भाजपा को असहज किया है, बल्कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों के पारंपरिक वोट बैंक पर भी असर डाल सकता है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि राहुल गांधी समाजवादी दलों के एजेंडे को अपनाकर दलित, आदिवासी, और ओबीसी समुदायों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, इस मांग को लागू करना आसान नहीं होगा। निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने के लिए कानूनी और व्यावहारिक चुनौतियां हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 1992 के इंद्रा साहनी मामले में फैसला दिया था कि कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इस सीमा को हटाने के लिए संवैधानिक संशोधन की जरूरत होगी, जो कि एक जटिल प्रक्रिया है। इसके अलावा, निजी क्षेत्र की कंपनियां इस मांग का विरोध कर सकती हैं, जैसा कि कर्नाटक में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण के प्रस्ताव के खिलाफ उद्योग जगत ने किया था।
विपक्ष और सत्ताधारी दल की प्रतिक्रिया
भाजपा ने राहुल गांधी की इस मांग पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने राहुल गांधी से सवाल किया कि क्या यह सच नहीं है कि उनके पिता और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मंडल आयोग के तहत ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का विरोध किया था? दूसरी ओर, भाजपा के कुछ सहयोगी दल, जैसे अपना दल (सोनेलाल) की नेता और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल, ने निजी क्षेत्र में आरक्षण का समर्थन किया है।
समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद जावेद अली खान ने कहा, “निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग समाजवादियों की पुरानी मांग है। इसे स्वैच्छिक नहीं, बल्कि कानूनी रूप से बाध्यकारी होना चाहिए।” वहीं, बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने राहुल गांधी के बयानों पर सवाल उठाते हुए कहा कि कांग्रेस सत्ता में रहते हुए दलित, आदिवासी, और ओबीसी के हितों के खिलाफ काम करती है।
क्या है राहुल गांधी का मकसद?
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राहुल गांधी की यह मांग 2024 के लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखकर उठाई गई थी, जिसे अब और मजबूती से आगे बढ़ाया जा रहा है। कांग्रेस का अहमदाबाद अधिवेशन, जहां इस मुद्दे पर चर्चा और प्रस्ताव पारित होने की संभावना है, इस दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। राहुल गांधी की यह रणनीति दलित, आदिवासी, और पिछड़े वर्गों के बीच कांग्रेस की पैठ बढ़ाने की कोशिश के तौर पर देखी जा रही है।
हालांकि, कुछ आलोचकों का कहना है कि यह मांग सियासी फायदे के लिए उठाई गई है और इसका व्यावहारिक अमल मुश्किल है। निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने के लिए न केवल कानूनी ढांचे की जरूरत होगी, बल्कि उद्योग जगत के सहयोग और सामाजिक सहमति की भी आवश्यकता होगी।आगे की राह
राहुल गांधी की इस मांग ने निजी क्षेत्र में आरक्षण और जातिगत जनगणना को राष्ट्रीय बहस का केंद्र बना दिया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस इस मुद्दे को अपनी सियासी रणनीति का मुख्य आधार बना पाएगी, या यह मांग केवल चुनावी शोर में खो जाएगी। फिलहाल, यह मुद्दा सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास के बीच एक नया संतुलन खोजने की चुनौती पेश कर रहा है।








